Sunday, March 29, 2015

{ ३०४ } रात ढ़ली जाती है






चढ़ी हुई रात यूँ ही ढ़ली चली जाती है
साथ ज़िगर को भी चीरे चली जाती है।

कल तलक थी जो साथ में ही मेरे, आज
हर सूँ देखा कहीं वो नज़र नहीं आती है।

मेरा टूटा हुआ दिल बिखरा पड़ा हरतरफ़
न जाने कैसे - कैसे वोह सितम ढ़ाती है।

कुछ पल को तो करीब आ जा ओ जालिम
दिल की प्यास हर सूँ चीखती चिल्लाती है।

अब मुझसे कतई रहा जाता नहीं तेरे बिना
ये ज़िन्दगी दर्द की ही जागीर हुई जाती है।


.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल

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