Friday, January 11, 2013

{ २३२ } मिलन की प्यास





कल जहाँ खिला था आँखों मे प्यार का मधुमास
आज वहीं पर हम लिख रहे हैं हिज्र का इतिहास।

शबे-रोज़ बेचैन किये रहती हैं विरह की आँधियाँ
न जाने कितने जन्मों की है ये मिलन की प्यास।

हवायें जब भी दस्तक देती हैं दिल के दरवाजे पे
चमक उठती आँखें होता उनके आने का आभास।

हर तसव्वुर में बस उसी का नक्श नजर आता है
दिल की कसक जगाती दिलेबेकरारी का एहसास।

दहलीज़ की हर इक आहट चौंका जाती मुझको
जाने और कितना बाकी है ज़िन्दगी मे वनवास।


------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल



हिज्र = जुदाई
शबे-रोज़ = दिन-रात
तसव्वुर = स्वप्न
दिलेबेकरारी = व्यथित हृदय

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