Saturday, November 24, 2012

{ २१५ } वो प्यार कहाँ है






जीवन के सफ़र की
हमसफ़र हैं
मेरी तनहाइयाँ।

मरुस्थल से
जीवन की
प्यास को बुझा रहे
आँखों से टपके आँसू।

इन पत्थरों के शहर में
बसते हैं
गूँगे-बहरे-स्वार्थी लोग
जो किसी की सुनते नहीं
सिर्फ़ अपनी कहते हैं।

इन पत्थरों के शहर मे
बुझे हुए चिरागों के मध्य
खोखली खुशियाँ हैं
हँसते हुए गम हैं
सुबुकती हुई आशायें हैं।

बेबसी
बेदिली
बेरुखी
इन पत्थरों के शहर की
असल पहचान हैं।

इन पत्थरों के शहर में
हृदय को छू लें
अपना बना लें
निराशा के बवन्डर से निकाल
आशा के आगोश मे समेट लें
अब वो प्यार कहाँ है...........।
..... वो प्यार कहाँ है............।।


............................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


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