Saturday, November 10, 2012

{ २१२ } आदमी, आदमी से डरने लगा है





आदमी इस जहाँ में आदमी से ही डरने लगा है
आँगन में अपने आदमी लाश सा सडने लगा है।

दरअसल सच कब का दफ़न हो चुका कब्र में
झूठ रँग-रोगन कर दिलों में धडकने लगा है।

खारज़ारों की भीड बढ गयी बागो-चमन में
गुलशन को अब यहाँ गुल ही खटकने लगा है।

धमनियों में लहू नही अब घुआँ ही बह रहा
अस्थियाँ समिधा हुईं, दिल दहकने लगा है।

आदमी अब बचे कहाँ हरतरफ़ प्रेत ही प्रेत है
हैवानियत की राह में इंसान जलने लगा है।


------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

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