Thursday, October 18, 2012

{ २०९ } ख्वाहिशों को देखता था कभी ख्वाब मे






देखता रहता था जिन ख्वाहिशों को कभी ख्वाब मे
लिखे जा रहा हूँ उन्हे अब हकीकत की किताब में।

आजाद था तो बाग का मौसम भी कुछ और ही था
खुश्बू भी तेज थी और रँग भी गहरा था गुलाब में।

तेज हवाये दिल की धडकने को और भी बढाती थीं
दिख जाता था उसका नूर हवा में उडते हिजाब में।

अब न ख्वाबों का भरोसा है न यादों पर रही पकड
ये ज़िन्दगी भी कब गुजर पाई है अपने हिसाब में।

नदी का किनारा, घरौंदों को लौटते परिंदों का शोर
अब देखते है रोज आफ़्ताब को डूबते हुए आब में।


----------------------------------- गोपाल कृष्ण शुक्ल

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