Sunday, May 13, 2012

{ १६२ } बुझा हुआ स्वर





पला अभावों के घर, ठोकर खा - खाकर, पीडा पीकर
मौत रोज बताती आकर, क्या करना तुमको जी कर।

जाने कितने जहरीले दिन काट दिये हैं हँसते-हँसते
मर गया समय का सर्प, जहर मेरे जीवन का पीकर।

अपने संघर्षों के प्रश्नों का मैं अनुत्तरित उत्तर ही हूँ
ढहे मंसूबे बडॆ - बडॆ और रेत के महल इस जमीं पर।

वर्तमान के कोलाहल का मैं एक बुझा हुआ स्वर हूँ
भूला रिश्तों को, जी रहा जहरीली हवाओं को पीकर।

अब अभिनय का दौर, सज गये मँच गलियों-गलियों
चका चौंध और कोलाहल में रागमयी स्वर दबा भीतर।


....................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


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