Tuesday, May 1, 2012

{ १४७ } भोर सिटपिटा रही है





सच्चाईयाँ गम उठा रही है
अब झूठ कदम बढा रही है।

ज़िन्दगी कहते हैं हम जिसे
वो मरने को छटपटा रही है।

अमरबेलें भी मुरझाने लगीं
उफ़ आ भीषण छटा रही है।

रात को सपने संजोये नींद
पर भोर सिटपिटा रही है।

मंजिलें और दूर खिसकती
अब रहगुजर मिटा रही है।

भूख से तबाह हुई बेचैनियाँ
तिनका-तिनका जुटा रही है।


.................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल


No comments:

Post a Comment