Wednesday, March 14, 2012

{ ११५ } खुद ही न टूट जाऊँ मैं





इन सूखे पत्तों को, पतझड में कहाँ तक बचाऊँ मैं
डर है तेज हवा के झोंके से खुद ही न टूट जाऊँ मैं।

सिलसिला काफ़ी पुराना है जीस्त में घने अँधेरों का
टिमटिमाते चिरागों से कब तक रोशनी फ़ैलाऊँ मैं।

सहमी-सहमी सी काँटों से उलझी दिल की ख्वाहिशें
कैसे पलकों के घरौंदों में अपने सपनो को सजाऊँ मैं।

इस कायनात में कुछ करीबी और अजीज भी हैं मेरे
मेरी उनको है फ़िक्र नही, पर कैसे उनको भुलाऊँ मैं।

तमाम रंजिशों के बाद गले मिलूँ? दिल धडकता है
कैसे हो मुमकिन, फ़िर से उनको अपना बनाऊँ मैं।

गहरी धुँध की एक दीवार खिंची है हमारे हर तरफ़
डर है कहीं खुद ही खुद से अजनबी न हो जाऊँ मैं।

काली आँधियों के ही रास्ते में बस्तियाँ हैं यादों की
काफ़िला उम्मीदों का अब किस जगह ठहराऊँ मैं।


.......................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


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