Wednesday, February 29, 2012

{ १०५ } मुकद्दर पर विश्वास नही है





मेरा हबीब, मेरा दिलनशीं, अब मेरे पास नही है
कैसे हाले-दिल बयाँ करूँ, दिल में हुलास नही है।

हँसता हुआ चेहरा, पर टीस सी चुभती है दिल में
इस मुस्तकबिल से मुमकिन कोई निकास नही है।

लफ़्ज़ों की अपनी हैं सरहदे कैसे बयाँ हो हाले-दिल
मेरे खामोश लबों से मेरे दिल का एहसास नही है?

हम थे जितने करीब, अब उतने ही दूर हो गये हैं
महजूर हूँ, नसीब में अब शायद इख्लास नही है।

बे-नियाज़ हूँ या कि बेकरार हूँ कुछ भी पता नही
तुमसे बिछडने का गम, क्या कुछ खास नही है?

हुस्नो-इश्क की कैद से रिहा मुझको कर दिया
यही लगता है कि ये इंसाफ़ की इजलास नही है।

फ़िर भी गुले-ख्वाहिश दिल में खिलाये रखता हूँ
गुलज़ार-गुलिस्ताँ हैं, पर कहीं एशोनशात नही है।

किस्मत ही अब मिलायेगी किसी रंगीन मोड पे
ये मुराद तो है, पर मुकद्दर पर विश्वास नही है।


________________ गोपाल कृष्ण शुक्ल

हुलास=आनन्द
मुस्तकबिल=भविष्य
महज़ूर=वियोगी
इख्लास=दोस्ती, प्रेम
बे-नियाज़=विरक्त
इजलास=न्यायालय
एशोनशात=सुख-चैन


No comments:

Post a Comment