Friday, February 10, 2012

{ ८३ } बस तुम ही हो...





बस तुम ही हो......................

बस तुम ही हो......................
एक मासूम अजूबी सी
ऊपरवाला चाह कर भी
दुबारा ऐसी रचना नही कर सका
किसी नदिया की तरह
हँसती - मचलती
इठलाती - बलखाती.....

जिस डगर से
जिस राह से गुजरती हो
तुझे देखने वाले सब
सन्न से रह जाते हैं
हर पत्ता, हर डाली
सावन की घटायें
और यहाँ तक... अब तो...
यह मधुमास भी
मुझसे तेरा पता पूँछता है

काश !
मैं जानता होता
तुम्हारा पता - ठिकाना

तब तुम...
सिर्फ़ मेरी...
और मै..
सिर्फ़ तुम्हारा होता

सिर्फ़ तुम्हारा.......
सिर्फ़ तुम्हारा.......


............................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


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