Wednesday, November 23, 2011

{ ७१ } वस्ल-ओ-मोहब्बत






रोज का ही किस्सा हुआ तुम पर आँखे ठहर जाने का
अरे ! किससे सीखा है ये हुनर दिल में उतर जाने का|

जिन्दा रहने के सिवा और कुछ भी काम न था मेरा
अब मजा आने लगा है मुझे ख्वाबों में उतर जाने का|

आंखों में हमने मोहब्बत के सुनहरे सपने सजाये हैं
करीब आओ, ये वक्त नहीं है पास से गुजर जाने का|

जरा देखो, अब तो सिन्दूरी शाम ने भी दस्तक दे दी है
है सही वक्त यही, इश्क के समन्दर में उतर जाने का|

सुकूँ, प्यार, वफाए-इश्क, रवादारी, वस्ल-ओ-मोहब्बत
चलो बनाएँ रास्ता इन सबको ज़िगर में ठहर जाने का|

तुम्हारा रूखसार सागरों-मीना है और आंखों में मैखाना
आरजू है यही बस यूँ पीते-पीते उम्र के गुजर जाने का|

दुनिया की तो दुनिया जाने, हम तो बस अपनी जानते हैं
डर है, मिल के तुमसे इस दुनिया से ही दरगुजर जाने का|


............................................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल



वफाए-इश्क=प्रेम करके निखाना

रवादारी=सहृदयता

वस्ल-ओ-मोहब्बत=प्यार और मिलन

दरगुजर=अलग-थलग


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