Sunday, November 6, 2011

{ ६१ } सूनी रहगुज़र





आहिस्ता-आहिस्ता खत्म हो चला हयाते-फ़ानी का ये सफ़र
छूट जायेगी दुनिया, यादें ही रह जायेंगीं, सूनी होगी रहगुजर।

देखना है और कब तक चलेगा अपनी जीस्त का ये सिलसिला
अब लौट कर न आ पायेंगीं कभी भी रौनकें ज़िन्दगी मे मगर।

किसी को अपना बना लूँ, नजरों में बिठा लूँ, है यह भी जरूरी
किसी को तो प्यार दूँ, किसी के तो दर्द में भीगे अपनी नजर।

किसकी आँखों से अश्क गिरेंगे, कौन होगा गमज़दा मेरे लिये
ज़िन्दगी में है यह भी जरूरी कि हो अपना भी एक हमसफ़र।

पर इन मौसमी हवाओं ने भी बदल दिये हैं अपने पुराने रास्ते
दिलकश खुशबुये किसी चमन की आती ही नही हैं अब इधर।

मिले ज़िन्दगी में मुझे कुछ शोहरत ऐसी मेरी तकदीर ही कहाँ
अपने इन हालातों पर खुद ही हँसता भी रहा हूँ मैं ही अक्सर।

ये धुआँ-धुआँ सा शामे गम का अँधेरा, ये ज़िन्दगी की थकन
उम्र भर पीता रहा मैं दर्द-ए-गम, सितम, और जाम-ए-ज़हर।

काँटों पर सदा हँस कर जिए, शोलों पर चले हैं ज़िन्दादिली से
कब मेरा जुनूँ रुका है, रस्ता हो कोई, कैसा भी रहा हो सफ़र।

चँद साँसों का ही सिर्फ़ रह गया है अब ये तमाशा ज़िन्दगी का
सिर्फ़ बाजीगरी ही तो की है हमने हमेशा अपनी इस उम्र भर।

सफ़र ज़िन्दगी का पूरा हुआ, चाहत भी कोई अब बाकी नही
अब कहाँ अपना कुछ भी खोने का रह गया है मुझको डर।

ये ज़िन्दगी तो बस एक रस्म ही है मौत के आने से पहले की
साँस लेते है हम, जिससे मिले अपने मुकामे-सफ़र का शहर।


............................................................................ गोपाल कृष्ण शुक्ल


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