Sunday, October 23, 2011

{ ५८ } .........जारी है





रेत के महलों में, उम्मीदों के संग मैंने जिन्दगी गुजारी है
उदास मंजर और आँसुओं का सिलसिला अब भी जारी है|

सवाल पर सवाल हैं और जवाब रिसते जखमों से हैं भरे
फ़िज़ा के भयानक शोर में, मेरी आवाज का डूबना जारी है|

नज़रों से मंजिल हुई ओझल, कदमों की रफ़्तार भी गुम
उदासी भरा चेहरा, नाम आँख, अश्कों का गिरना जारी है|

यादे भी सब वीरान हुईं, साथ मेरे कोई हमसाया भी नही
उलझी-बिखरी रातों में, बुझते हुए तारों का टूटना जारी है|

बड़ी उम्मीद और जातां से चमन में खुशबुओं को पिरोया
फूल खिल के महक भी न सका, टूट के बिखरना जारी है|

अब हमारी हर रात बहुत गमगीन और स्याह सी हो गयी
जुगनू-तारे भी थक चुके, पर आँसुओं का गिरना जारी है|

दिल में हरा तरफ छाए हुए हैं काले बादल गम और यास के
पर बुझती हुई शमा का अभी भी आँधियों से लड़ना जारी है|

किससे हारा, क्यों हूँ अपने ही घर में एक अजनबी की तरह
मुझमे कौन सी कमजर्फी है, सवालातों का घुमडना जारी है|

तमाम उम्र अपने दिल की आवाज को किताबों में लिखते रहे
वर्क अभी खाली हैं, जज्बातों की सियाही से सजाना जारी है|


..................................................................... गोपाल कृष्ण शुक्ल


मंजर=दृश्य
फिजा=वातावरण
यास=निराशा
अफसाने=कहानियाँ
कमजर्फी=कमी, बुरी आदते, अनुदारता

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