Thursday, March 17, 2011

{ २६ } बन्द ज़ुबाँ






बन्द जुबाँ से क्या कुछ भी पता लगता है,

जख्म दिल पर रोज एक नया लगता है।


बिजलियाँ गिरी हैं मोतबरी की मीनारों पर,

उदासियाँ साथी है, चमन पराया लगता है।


अजब सा सन्नाटा है, दहशत गूँजा करती है,

सजी महफ़िलों मे अपना दिल कहाँ लगता है।


ज़िन्दगी में भी अब ज़िन्दगी जैसे तेवर नही,

ज़िन्दगी तो है, पर कुछ सूना-सूना लगता है।


तमाम दर्द अपने सीने में ही छुपाये हुए हूं,

सबके सामने मुस्करा देने मे क्या लगता है।


नजदीकियों मे भी तनहाइयाँ रास आने लगीं

आदत हो गयी, बस एक दो रोज बुरा लगता है।


नये दौर का सफ़र है, नया सबेरा, उजियारा है,

अपने दिन ढल गये, सब अँधियारा लगता है ।



.............................................................. गोपाल कृष्ण शुक्ल



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